व्यक्ति-निर्माण समाज पर निर्भर
व्यक्ति का निर्माण केवल उसी पर नहीं, बहुत कुछ अंशों में समाज पर निर्भर है।इसलिए उसे अपने निर्माण को समाज के निर्माण में देखना है। सफलता का पहला सूत्र है- मूल्यों का परिवर्तन। समाज का निर्माण मूल्यों के परिवर्तन से ही होता है। स्वार्थ और संग्रह, ये दोनों मूल्य जब विकसित होते हैं तब व्यक्ति पुष्ट होता है और समाज क्षीण। क्षीण समाज में समर्थ व्यक्तित्व विकसित नहीं हो पाते। आज का समाज सही अर्थ में क्षीण है। उसे पुष्ट करने के लिए स्वार्थ और विसर्जन के मूल्यों को विकसित करना जरूरी है। इनसे समाज पुष्ट होगा। पुष्ट समाज में समर्थ व्यक्तित्व पैदा होंगे। क्षीण कोई नहीं होगा। मैंने देखा है स्वार्थ और संग्रह परायण समाज ने अनेक प्रकार की क्रूर्ताओं और अनैतिकताओं को जन्म दिया है। इसे बदलना क्या आज के सामाजिक व्यक्ति का कर्तव्य नहीं है? सफलता का दूसरा सूत्र है- शक्ति का विकास। शक्ति के दो स्रोत हैं- मानसिक विकास और संगठन। मानसिक विकास के लिए धर्म का अभ्यास और प्रयोग करना जरूरी है। संगठन की शक्ति का विस्फोट इतना हुआ है कि अब इसमें कोई विवाद ही नहीं है।
हमारे पूज्य भिक्षु स्वामी ने संगठन का मूल्य दो शताब्दी पूर्व ही समझ लिया था। उनके अनुयायियों को क्या उसे अब भी समझना है। वात्सलता और सहानुभूति को विकसित किए बिना संगठन सुदृढ़ नहीं हो सकता। आज सबकुछ शक्ति-संचय के आधार पर हो रहा है। इसलिए संगठन अब अनिवार्य हो गया है। छोटे-छोटे प्रश्न इस महान कार्य में अवरोध नहीं बनने चाहिए। सफलता का तीसरा सूत्र है- शातौर परिवर्तन का यथार्थ-बोध। कुछ स्थितियां देशकालातीत होती है। उन्हें बदलने की जरूरत नहीं है, किंतु देशकाल सापेक्ष स्थितियों का देशकाल के बदलने के साथ न बदलना असफलता का मुख्य हेतु है। परिवर्तन के विषय में युवकों का दृष्टिकोण बहुत स्पष्ट होना चाहिए। बदलना अपने आप में कोई उद्देश्य नहीं है और नहीं बदलना कोई सार्थकता नहीं है। बदलने की स्थिति होने पर बदलना विकास की अनिवार्य प्रक्रिया है।