1989 से सिर्फ एक बार हारी BJP
राजस्थान में लोकसभा की 25 सीटें हैं। पिछले दो चुनाव में भाजपा (एनडीए) ने यहां क्लीन स्वीप किया था, यानी पूरी 25 की 25 सीटों पर जीत दर्ज की थी। अब एक बार फिर चार जून को चुनाव परिणाम सामने आने वाले हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या भाजपा पिछला प्रदर्शन फिर दोहरा पाएगी? आइए, सबसे पहले जानते हैं जयपुर की लोकसभा सीटों इतिहास।
यहां जयपुर शहरी और जयपुर ग्रामीण दो लोकसभा सीटें हैं। जयपुर शहरी सीट पर भाजपा की मंजू शर्मा और कांग्रेस के प्रताप सिंह खाचरियावास के बीच मुकाबला हुआ है। इसी तरह जयपुर ग्रामीण सीट पर भाजपा के राव राजेंद्र सिंह और कांग्रेस युवा नेता अनिल चोपड़ा के बीच टक्कर हुई है। दोनों पार्टियों के प्रत्याशी की किस्मत ईबीएम में कैद है, चार जून को इसका नतीजा सामने आएगा।
पिछले दो चुनाव में भाजपा की बड़ी जीत
जयपुर शहरी लोकसभा सीट को भाजपा का गढ़ कहा जा सकता है। पिछले दो चुनाव 2014-2019 से भाजपा नेता रामचरण बोहरा यहां पार्टी के लिए कमल खिला रहे हैं। दोनों ही चुनाव में बोहरा ने कांग्रेस के प्रत्याशियों को करीब पांच लाख वोटों से हराया था।
1989 से 2019 तक सिर्फ एक बार चुनाव हारी भाजपा
2014 से पहले भी जयपुर शहरी सीट पर भाजपा मजबूत रही है। 1989 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा के गिरधारी लाल भार्गव यहां पहली बार चुनाव जीते थे। तब उन्होंने कांग्रेस के भवानी सिंह को करीब एक लाख वोटों के अंतर से हराया था। इसी तरह 1991, 1996, 1998, 1999 और 2004 के लोकसभा चुनाव में गिरधारी लाल भार्गव ने यहां से जीत दर्ज की। हालांकि, 2009 के चुनाव में भाजपा इस सीट को नहीं बचा पाई। कांगेस प्रत्याशी महेश जोशी ने भाजपा उम्मीदवार धनश्याम तिवारी को करीब 16 हजार वोट से मात दे दी। इसके बाद हुए 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने एक बार फिर यहां कब्जा जमाया। यानी 1989 से 2019 तक सिर्फ एक लोकसभा चुनाव में भाजपा को इस सीट पर हार का सामना करना पड़ा।
विस चुनाव में मिली बड़ी जीत का भी फायदा भाजपा को
लोकसभा चुनाव से पहले राजस्थान में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को जीत मिली। जयपुर शहरी लोकसभा सीट में आठ विधानसभा सीटों में से छह पर कमल खिला था। वहीं, कांग्रेस को सिर्फ दो सीट पर जीत मिली। ऐसे में जयपुर शहरी लोकसभा सीट पर भाजपा की पकड़ मजबूत रही। इसका फायदा भी भाजपा प्रत्याशी को मिला है। वहीं, कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी समस्या यह रही कि उन्हें इस सीट पर मजबूत दावेदार नहीं मिला। इस कारण विस चुनाव हारे प्रताप सिंह खाचरियावास को प्रत्याशी बनाना पड़ा।